जिसे काली रात न डस सके जिसे आसमाँ न डरा सके कोई ऐसी शम्अ' जलाइए जो हवा से आँख मिला सके मैं नई सहर का नक़ीब हूँ मुझे फ़िक्र-ए-नफ़-ओ-ज़रर नहीं मिरे साथ महव-ए-सफ़र वो हो जो अजल के साज़ पे गा सके मिरे दस्त को वो हुनर अता हो तिरे दयार-ए-कमाल से जो दिलों में अज़्म जगा सके जो नज़र में फूल खिला सके तू ख़याल-ओ-फ़िक्र से मावरा तू सरापा राज़ ही राज़ है तिरी खोज में जो सदा रहे तिरी गर्द को भी न पा सके वो हमीं थे जो तिरे नाम पर सर-ए-दार हँस के गुज़र गए किसी फ़लसफ़ी से न बन पड़ा न फ़क़ीह-ए-वक़्त ही जा सके तिरे मय-कदे का अजीब रस्म-ओ-रिवाज है मिरे साक़िया कोई रिंद जाम लपक सके न शराब मुँह से लगा सके ये क़ज़ा-ओ-क़द्र का खेल है कहीं धूप है कहीं छाँव है जिसे तुम ने चाहा वो मिल गया जिसे हम ने चाहा न पा सके मिरे उन के बीच थीं दूरियाँ ऐ 'नियाज़' कैसी ख़बर नहीं मुझे अपने पास बुला सके न ग़रीब-ख़ाने तक आ सके