जिस्म अपना है जाँ पराई है बात अब कुछ समझ में आई है सच के कहने में क्या बुराई है हम ने दानिस्ता मात खाई है क़ुर्बतों का गुज़र गया मौसम अब तो क़िस्मत में बस जुदाई है ज़िंदगी अश्क-ओ-ख़ूँ के ताजिर से लज़्ज़त-ए-ग़म ख़रीद लाई है बारहा अपने ख़ून से हम ने शम्अ'-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र जलाई है तिश्नगी भूक अश्क दर्द-ओ-अलम मेरी दिन भर की बस कमाई है सहन-ए-गुलशन से फिर नसीम-ए-‘सहर’ निकहत-ए-गुल चुरा के लाई है