ख़याल-ए-शब कभी फ़िक्र-ए-सहर में रहता है तमाम उम्र परिंदा सफ़र में रहता है मिलेगा क्या वो तुम्हें आरज़ी मसर्रत से जो लुत्फ़-ए-ख़ास ग़म-ए-मो'तबर में रहता है किसी को बढ़ के न तुम आइना दिखा देना कि इंतिक़ाम का जज़्बा बशर में रहता है वही तो फ़िक्र को देता है फ़न का पैराहन जो ए'तिमाद कि दस्त-ए-हुनर में रहता है मता-ए-होश न लुट जाए दिल न रुक जाए ये डर 'सहर' हमें अपने ही घर में रहता है