जो अज़ल ही से मुक़फ़्फ़ल है वो घर खोलेगा आज वो मेरे लिए सातवाँ दर खोलेगा ढूँढता है जो बहर-गाम नई राह यहाँ वो मुसाफ़िर भी कभी रख़्त-ए-सफ़र खोलेगा सब्ज़ पत्तों की क़बा किस ने है छीनी उस से इक-न-इक रोज़ ये उक़्दा तो शजर खोलेगा उस की क़िस्मत पे सभी रश्क तो करते हैं मगर कितने पानी में सदफ़ है ये गुहर खोलेगा एक मुद्दत से जो बैठा है सिमट कर ख़ुद में वो परिंदा भी हवा देख के पर खोलेगा मोम की तरह पिघल जाएँगे पत्थर कितने एक फ़नकार जहाँ दस्त-ए-हुनर खोलेगा राज़-ए-हस्ती भी किसी रोज़ यहाँ पर 'नौशाद' देखना मुझ सा कोई ख़ाक-बसर खोलेगा