जो बहर-ए-एहतियात में पाली नहीं गई उस ज़िंदगी की नाव सँभाली नहीं गई साहिल से देखते रहे सब डूबते हुए लेकिन भँवर से नाव निकाली नहीं गई उन के हर इक इशारे पे सर को झुका दिया मुझ से बड़ों की बात भी टाली नहीं गई पुरखों से अपना तौर है दस्तार बाँधना पगड़ी किसी की हम से उछाली नहीं गई घुँघट शब-ए-उरूस उठाने की देर थी फिर चादर-ए-हिजाब सँभाली नहीं गई