जो भी मिंजुमला-ए-आशुफ़्ता सरा होता है ज़ीनत-ए-महफ़िल-ए-साहब-नज़राँ होता है यही दिल जिस को शिकायत है गिराँ-जानी की यही दिल कार-गह-ए-शीशा-गिराँ होता है शाख़-ए-गुलज़ार के साए में कहाँ दम लीजे कि यहाँ ख़ून का सैल-ए-गुज़राँ होता है किस को दिखलाइए अपनों की मलामत का समाँ कि ये उस्लूब हदीस-ए-दिगराँ होता है किस को बतलाईए वो राब्ता-ए-नाज़-ओ-नियाज़ उन की महफ़िल में जो ऐ दीदा-वराँ होता है कभी करती है तजल्ली निगरानी दिल की कभी दिल सू-ए-तजल्ली-निगराँ होता है मुझ पे होते हैं ग़म-ए-दिल के सहीफ़े नाज़िल जिन में अफ़्साना-ए-आली-गुहराँ होता है दिल भी देता है मुझे मश्वरा-ए-तर्क-ए-वफ़ा कुछ तक़ाज़ा-ए-जहान-ए-गुज़राँ होता है मैं तो हूँ शेफ़्ता-ए-रंग-ए-तग़ज़्ज़ुल 'आबिद' कि यही शाहिद-ए-ख़ूनीं-जिगराँ होता है