जो हो सके तो आप भी कुछ कर दिखाइए उम्र-ए-अज़ीज़ अपनी न यूँ ही गँवाइए दिन को ठिठुरती धूप में टाँगें पसारिए रातों को जाग जाग के महफ़िल सजाइए चाय के एक कप का यही है मुआवज़ा यारों को अहद-ए-रफ़्ता के क़िस्से सुनाइए नाम-ओ-नुमूद की हो अगर आप को हवस जैसे भी हो किसी तरह बस छुपते जाइए वो अजनबी भी आश्ना बन जाएगा 'मतीन' उस की गली के रोज़ ही चक्कर लगाइए