जो ज़िंदगी में कभी जुस्तुजू नहीं करता मिरा ख़ुदा भी उसे सुरख़-रू नहीं करता ये मेरा दिल तो धड़कता है ज़ाहिरन लेकिन किसी भी शय की ये दिल आरज़ू नहीं करता किसी के क़ुर्ब ने मुझ को बना दिया शाइ'र वगर्ना शाइरी मैं तो कभू नहीं करता किसी ने देख लिया तो कहेगा दीवाना जो अपना चाक-ए-गरेबाँ रफ़ू नहीं करता जो जैसा है उसे वैसा ही ये दिखाता है ये आइना तो कभी भी ग़ुलू नहीं करता मैं ऐसे शख़्स की आँखों को पाक समझूँगा नज़र जो सू-ए-ज़न-ए-ख़ूब-रू नहीं करता फ़क़ीर हूँ तिरे दर का तुझे सदा दी है ऐ जान-ए-जाँ मैं सदा कू-ब-कू नहीं करता वो जिस ने बीच के ज़ेवर तुझे पढ़ाया था अजब है फ़ोन तक उस माँ को तू नहीं करता हमारा इश्क़ अभी हाल-ए-एहतिज़ार में है तो फिर उसे कोई क्यों क़िबला-रू नहीं करता महक रही हैं फ़ज़ाएँ गुलों की ख़ुशबू से चमन में रह के तू एहसास-ए-बू नहीं करता ज़मीन-ए-शेर हो बंजर तो उस ज़मीं पे कभी दरख़्त शेर-ओ-सुख़न का नुमू नहीं करता किताब-ए-इश्क़ को छूने के वास्ते 'नूरी' वुज़ू ज़रूरी है तो क्यों वुज़ू नहीं करता