जो ख़्वाब मेरे नहीं थे मैं उन को देखता था इसी लिए आँख खुल गई थी इसी लिए दिल दुखा हुआ था उदासियों से भरी हुई इल्तिजा सुनी थी किसी नगर में कोई किसी को पुकारता था वो इक सदा थी कि हफ़्त-आलम में गूँजती थी न-जाने कैसे कोई किसी से बिछड़ गया था अजीब हैरत बिखेरते थे वो दास्ताँ-गो कि शब ने जाने से साफ़ इंकार कर दिया था गुज़िश्तगाँ को भी ये गिला था सुना है मैं ने सुना है उन को भी इस्म-ए-आज़म नहीं मिला था फ़ज़ा सुनहरी थी रंग फैला था चार जानिब कि चाँद से वो ज़मीं पे जैसे उतर रहा था सफ़र के आख़िर पे शमएँ रौशन सी हो गई थीं कोई मसर्रत की सब हदों से गुज़र गया था