जो कुछ मुझ से कमाया जा रहा है महज़ घर का किराया जा रहा है सुबूतों को मिटाया जा रहा है यूँ सच का क़द घटाया जा रहा है वो पत्थर से ज़ियादा कुछ नहीं है तो फिर सर क्यों झुकाया जा रहा है नहीं निय्यत मदद की हाथ फिर भी बढ़ाने को बढ़ाया जा रहा है हक़ीक़त हम से है मुँह फेर बैठी सो ख़्वाबों को जगाया जा रहा है अलग मैं भीड़ से चलने लगी हूँ मुझे पागल बताया जा रहा है