जो लोग दीदा-ओ-दिल को तबाह देखते हैं मकीन ख़्वाब के आने की राह देखते हैं हमें अब आँख के मंज़र का ए'तिबार नहीं सो हम अब अक्स नहीं बस निगाह देखते हैं ये कैसी आग लगाता है आफ़्ताब कि हम ज़मीन-ओ-अर्श को होते सियाह देखते हैं तुम अपनी ज़ात से कोई मुतालबा न करो हम अपने-आप से कर के निबाह देखते हैं हवा ने शहर का नक़्शा बदल दिया शायद ग़ुबार-ए-राह में हम सैर-गाह देखते हैं बराए-नाम है बस मेरा मुहतमिम होना कि इंतिज़ाम तो सब सरबराह देखते हैं मैं साफ़-गो हूँ मगर बे-ज़बान लगता हूँ ये किस तरह से मुझे सब गवाह देखते हैं करेंगे हम भी कभी फ़र्क़ मीठे खारे में अभी तो आब की ख़्वाहिश में चाह देखते हैं निकल के नरग़ा-ए-क़हर-ओ-अज़ाब से 'राहत' सब अपने वास्ते जा-ए-पनाह देखते हैं