जो मौज ख़ुशबुओं की थी गुलाब से निकल गई मैं मुज़्महिल थी इस क़दर शबाब से निकल गई ये ज़िंदगी ये रुख़्सती उसी की हैं अमानतें शिकस्ता जिस्म में तिरे अज़ाब से निकल गई मैं लिख रही थी दास्ताँ तिरा भी नाम आ गया कहानी अपने आप ही किताब से निकल गई वो लम्स बढ़ रहा था अब क़रीब से क़रीब-तर सो मैं ने फ़ैसला किया हबाब से निकल गई शरीक दौड़ में हुए सफ़र भी और क़याम भी तो रख़्श-ए-वक़्त मैं तिरी रिकाब से निकल गई सवाल का जवाब भी सवाल ही से देगा तू झमेला-साज़ मैं तिरे सराब से निकल गई मैं मुब्तला-ए-आरज़ू थी आरज़ू से जाग उठी और अगले पल ही ज़िंदगी हिसाब से निकल गई निराश चाँद तीरगी में घुल के शांत हो गया 'सहर' मैं नींद में चली तो ख़्वाब से निकल गई