मर गए तो इस का ग़म रह जाएगा ज़िंदगी में पेच-ओ-ख़म रह जाएगा टूट जाएगा फ़ुसूँ शमशीर का सिर्फ़ ए'जाज़-ए-क़लम रह जाएगा शेख़-ओ-पण्डित तो फ़ना हो जाएँगे क़िस्सा-ए-दैर-ओ-हरम रह जाएगा छेड़ देंगे हम जो ग़म की दास्ताँ सारा आलम चश्म-ए-नम रह जाएगा मय-कदे में ख़्वार सब हो जाएँगे एक साक़ी मोहतरम रह जाएगा