जो सूरत इश्क़ की पैदा न करता

जो सूरत इश्क़ की पैदा न करता
तो कोई हुस्न की पूजा न करता

मोहब्बत का कभी सौदा न करता
ज़माना आप को रुस्वा न करता

फ़िराक़-ए-दीद में तड़पा न करता
तो दिल दुनिया-ए-ग़म पैदा न करता

बुतों के इश्क़ में रुस्वा न करता
ख़ुदा कुछ और करता या न करता

अगर एहसान को भूला न करता
बशर दुनिया का मुँह काला न करता

तुम्हारे आरिज़-ए-रंगीं के होते
हसीनों की कोई पर्वा न करता

सुरूर-ए-दिल अगर होता हक़ीक़ी
क़यामत नित-नई बरपा न करता

बिल-आख़िर हम ने तुम पर जान दे दी
ये आलम था कि मरता क्या न करता

अगर साक़ी की आँखों में खटकता
तो बादा-ख़्वार की परवा न करता

जो होता होश मुझ को बे-ख़ुदी में
वफ़ा के राज़ को इफ़्शा न करता

ग़नी रहता न दिल जो आशिक़ी से
तो शायद हुस्न को तोला न करता

उधर तुम बे-रुख़ी पर 'शाद' रहते
इधर मैं दिल कभी मैला न करता


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