जुनून-ए-इश्क़ ले आया अरे ज़ालिम कहाँ मुझ को नज़र आती है अपनी ज़िंदगी इक दास्ताँ मुझ को बुलाएँ लाख सुब्ह-ओ-शाम की रानाइयाँ मुझ को कहा जाए जिसे दिल अब मयस्सर है कहाँ मुझ को उसे तदबीर से निस्बत उसे तक़दीर ही कहिए दिखाए ज़िंदगी की हर रविश नाकामियाँ मुझ को क़सम इन बस्तियों से तो कहीं बेहतर थे वीराने मिला है कुछ न कुछ अक्सर सुकून-ए-दिल जहाँ मुझ को अबस बदले हुए मौसम की दिलकश चाँदनी रातें जो बहलाएँ न तेरी याद की रंगीनियाँ मुझ को ये नाकामी के बाद एहसास-ए-नाकामी के हंगामे अता कर दी है गोया दौलत-ए-कौन-ओ-मकाँ मुझ को 'सहर' जज़्बात का मंदिर है और हालात की पूजा न रब्त-ए-बाग़बाँ मुझ को न ख़ब्त-ए-आशियाँ मुझ को