जुनून-ए-शौक़ में आशुफ़्ता-सामानों पे क्या गुज़री ख़िरद-मंदों पे क्या बीती गरेबानों पे की गुज़री वो जिन के ख़ून से रंगीं तुम्हारी बज़्म-ए-इशरत है कभी सोचा है उन मजबूर इंसानों पे क्या गुज़री मिरा ख़ून-ए-जिगर तो गुल्सिताँ के काम आया है बताऊँ किस तरह आख़िर बयाबानों पे क्या गुज़री हमारे दम से क़ाएम थी बहार-ए-गुलशन-ओ-सहरा हमारे बाद गुलशन और वीरानों पे क्या गुज़री उजालों के बिना जो एक लम्हा जी न पाते थे शब-ए-ज़ुल्मात में ऐसे सनम-ख़ानों पे क्या गुज़री हमारा अज़्म गुज़रा मुस्कुरा कर हर हवादिस से हमें साहिल मिला जिस वक़्त तूफ़ानों पे क्या गुज़री बहुत मासूम हैं 'नाशाद' कर के हम को दीवाना हमीं से पूछते हैं चाक-दामानों पे क्या गुज़री