जुनूँ-पर्वर्दा दिल से आगही देखी नहीं जाती ये ज़ुल्फ़ों में रहा है रौशनी देखी नहीं जाती मैं दानिस्ता हर इक बज़्म-ए-तरब से दूर रहता हूँ कि फ़र्त-ए-ग़म में औरों की ख़ुशी देखी नहीं जाती ख़ुदारा मुस्कुरा कर शाद कर दो सारी महफ़िल को जहाँ तुम हो वहाँ अफ़्सुर्दगी देखी नहीं जाती तग़ाफ़ुल छोड़िए शान-ए-करम पर हर्फ़ आता है परस्तारों से इतनी बे-रुख़ी देखी नहीं जाती किसी दर पर तुम्हारे दर का साइल हाथ फैलाए मोहब्बत में ये दरयूज़ा-गरी देखी नहीं जाती उमँड आती हैं आँखें क्या मज़ाक़-ए-दीद को रोएँ कि अब हम से तिरी तस्वीर भी देखी नहीं जाती 'शिफ़ा' नाकाम-ए-उल्फ़त को सहारा कोई क्या देगा शिकस्ता दिल पे दुनिया की हँसी देखी नहीं जाती