ख़्वाब ही के साथ मेरे ख़्वाब की ता'बीर थी शब को ज़ुल्फ़ें हाथ में थीं सुब्ह को ज़ंजीर थी कश्मकश में इस तरह गुज़री है सारी ज़िंदगी उम्र भर तदबीर से उलझी हुई तक़दीर थी क्या झुका सकता कोई मेरी जबीन-ए-शौक़ को इस पे जब कंदा तुम्हारे हाथ की तहरीर थी आज तक बरहम हैं मुझ से आज तक रूठे हुए कह दिया था हाल-ए-दिल इतनी मिरी तक़्सीर थी हादसात-ए-ज़िंदगी ने ही सँवारी ज़िंदगी ये इनायत आप की थी या मिरी तक़दीर थी बे-क़रारी खींच लाई उन की बज़्म-ए-नाज़ से वर्ना उन के मुल्तफ़ित होने में क्या ताख़ीर थी थीं तसव्वुर में मिरे कौन-ओ-मकाँ की वुसअ'तें मरकज़-ए-ज़ौक़-ए-नज़र लेकिन तिरी तस्वीर थी दास्तान-ए-ग़म ज़बान-ए-हाल से कर दी बयाँ क्या हुआ हम पर अगर पाबंदी-ए-तक़रीर थी हम तो पाबंद-ए-मोहब्बत हैं 'शिफ़ा' अब क्या करें वर्ना जो चाहा हुआ ये आह में तासीर थी