जुरअत-ओ-अज़्म चाहिए दिल में कोई मुश्किल नहीं है मुश्किल में उस सफ़ीने का तज़्किरा बे-सूद हो चुका है जो ग़र्क़ साहिल में हाए उस कारवाँ की पामाली लुट गया जो पहुँच के मंज़िल में ये है शान-ए-कमाल-ए-ख़ुद्दारी बे-नियाज़ी है उन की महफ़िल में रोग़न-ए-ख़ून-ए-आरज़ू से मिरे जल रहा है चराग़ महफ़िल में फूँक सकता है ख़िर्मन-ए-हस्ती वो शरारा है तूदा-ए-गुल में रौशनी वो है और ये ज़ुल्मत फ़र्क़ इतना है हक़-ओ-बातिल में मुँह की खानी पड़ेगी ऐ 'हमदम' जो भी आया तिरे मुक़ाबिल में