जुस्तुजू-ए-मंज़िल के रास्ते हज़ारों हैं कोई क़ाफ़िला चुन लो क़ाफ़िले हज़ारों हैं संग-ओ-शीशा टकरा कर टूटते हैं तो टूटें बे-शुमार पत्थर हैं आइने हज़ारों हैं लोग झूट कहते हैं ख़ुश हैं ज़िंदगानी में आदमी की हस्ती में मसअले हज़ारों हैं ये न समझो मक़्तल की ख़त्म हो गईं रस्में अब भी आज़माइश के मरहले हज़ारों हैं मैं हूँ एक परवाना जान दूँ तो किस पर दूँ बे-शुमार शमएँ हैं और दिए हज़ारों हैं बिजलियाँ बहुत सी हैं ऐ फ़लक तिरे सर में इस ज़मीं के दिल में भी ज़लज़ले हज़ारों हैं दीन से भला कोई फ़ल्सफ़ा नहीं 'मेराज' वैसे इस ज़माने में फ़लसफ़े हज़ारों हैं