जुज़ मर्ग दर्द-ए-इश्क़ से कोई मफ़र नहीं इस के लिए दवा-ओ-दुआ कारगर नहीं किस दर्जा पुर-ख़तर हैं मोहब्बत की मंज़िलें इस पर ये तुर्रा है कि कोई राहबर नहीं तीर-ए-निगाह-ए-नाज़ ने क्या क्या सितम किए मजरूह दिल नहीं कि दो पारा जिगर नहीं ख़ुद से भी बे-ख़बर हैं तिरे इंतिज़ार में और तेरी याद दिल से जुदा लम्हा भर नहीं जिस शय पे की निगाह दिखाई दिए हो तुम क्या है अगर ये हुस्न-ए-फ़रेब-ए-नज़र नहीं तुम ने हज़ार बार दिए हैं हमें फ़रेब लेकिन हमारे इश्क़ में ज़ेर-ओ-ज़बर नहीं 'जौहर' लुटाई हम ने तो कुल काएनात-ए-ज़ीस्त लेकिन उस आफ़त-ए-दिल-ओ-जाँ पर असर नहीं