काली घटा कब आएगी फ़स्ल-ए-बहार में आँखें सफ़ेद हो गईं इस इंतिज़ार में क्यूँ कर क़रार आए दिल-ए-बे-क़रार में तुम पूरे कब उतरते हो क़ौल-ओ-क़रार में तारीक दश्त हो गया आँखों में क़ैस की पिन्हाँ हुआ जो नाक़ा-ए-लैला ग़ुबार में आए कभी न फिर तुझे सैर-ए-चमन में लुत्फ़ बैठे अगर तू आ के दिल-ए-दाग़-दार में लाज़िम नहीं कि मर्द मुसीबत में हो मलूल ख़ंदाँ हमेशा रहता है गुल ख़ारज़ार में है ये किसी की चश्म-ए-सियह-मस्त का असर तौबा भी लड़खड़ाने लगी है बहार में होते वहाँ जो 'दाग़' तो दिल्ली भी देखते अब क्या करेंगे जा के उस उजड़े दयार में क्या ख़ाक अपने दिल को तमन्ना-ए-शे'र हो जुज़ ख़ार कुछ नहीं चमन-ए-रोज़गार में जुज़ 'दाग़' आज बुलबुल-ए-हिन्दुस्ताँ है कौन कहते हैं हम पुकार के ये सौ हज़ार में ऐ 'मशरिक़ी' नसीब न सू-ए-दुआ' है ये क्या ग़म जो जागता हूँ शब-ए-इंतिज़ार में