काम जब करता है इंसाँ अज़्म-ए-इंसानी के साथ फेर देता है वो दरिया का भी रुख़ पानी के साथ वक़्त जब से हो गया उन की सितम-रानी के साथ घर भी वीराँ हो गया है दिल की वीरानी के साथ उस का अंदाज़-ए-तकल्लुम किस के बस की बात है वो तो काँटे भी चुभोता है गुल-अफ़्शानी के साथ आज समझाते हुए नासेह ने आख़िर कह दिया कौन मयख़ाने से निकले पाक-दामानी के साथ कितने पर्दे मुझ पे थे जब शेर मैं कहता न था मैं भी रुस्वा हो गया अपनी ग़ज़ल-ख़्वानी के साथ ख़ैर अब तक जिस तरह गुज़री गुज़ारी ऐ 'ज़ुहूर' ज़िंदगी अब तो गुज़ारो पाक-दामानी के साथ