कब बात हो बग़ैर ख़ुशामद वहाँ दुरुस्त वो ना-दुरुस्त भी जो कहें कहिए हाँ दुरुस्त थोड़े से दिन बहार के हैं किस उमीद पर करते हैं अपने मुर्ग़-ए-चमन आशियाँ दुरुस्त कुछ मैं भी अपना हाल-ए-तबीअत बयाँ करूँ गर हो मिज़ाज आप का ऐ मेहरबाँ दुरुस्त उस को दुरुस्ती-ए-दिल-ए-आशिक़ से क्या ग़रज़ जिस बद-ज़बान की नहीं अब तक ज़बाँ दुरुस्त आँखों में रह कि दिल में ठहर तेरे वास्ते आरास्ता हर एक मकाँ हर मकाँ दुरुस्त हर रोज़ ताज़ियाना-ए-ज़ुल्फ़-ए-दराज़ से तू ने भी दिल को ख़ूब किया मेरी जाँ दुरुस्त आता है सामने जो वो ग़ारत-गर-ए-शकेब औसान 'दाग़' रहते हैं अपने कहाँ दुरुस्त