कब का गुज़र चुका है वो मौसम शबाब का अब ज़िक्र है फ़ुज़ूल वफ़ा की किताब का फ़ुर्सत मिले तो देख ज़रा दिल का आइना इस में है अक्स तेरे गुनाह-ओ-सवाब का चुप-चाप हाल-ए-अहल-ए-नज़र देखते रहो है किस के पास वक़्त सवाल-ओ-जवाब का हर शख़्स घिर गया है नए इज़्तिराब में तोड़ा है जिस ने क़ुफ़्ल दर-ए-इज़्तिराब का रखता है तेरे रू-ए-हसीं से मुशाबहत हर शाख़ पर सजा है जो चेहरा गुलाब का काफ़ी है उस की ज़ात के इरफ़ान के लिए मौज-ए-हवा के दोश पे उड़ना सहाब का 'शाहिद' जिन्हें ख़बर है रुमूज़-ए-हयात की रखते नहीं हिसाब ग़म-ए-बे-हिसाब का