कब मेरे लिए शाम-ओ-सहर काट रहा है वो अपने सराबों का सफ़र काट रहा है मैं उस के तसव्वुर से निकल आया हूँ लेकिन तन्हा हूँ मुझे मेरा ही घर काट रहा है मैं उस की मोहब्बत में गिरफ़्तार हुआ हूँ पंछी की तरह वो मिरे पर काट रहा है आसेब की उलझी हुई जड़ फैल रही है दीवार के सीने को शजर काट रहा है आज़ाद तो रक्खा है मुझे अहल-ए-क़फ़स ने ये कौन मिरी सोच के पर काट रहा है बाहर कोई मस्मूम हवा डसने लगी है अंदर से मुझे दर्द-ए-जिगर काट रहा है हालात की मौजों में मिरी नाव घिरी है पिंदार मिरा गहरा भँवर काट रहा है इक मैं ही नहीं इश्क़ के आज़ार में तन्हा उस को भी मोहब्बत का असर काट रहा है दुनिया है 'फहीम' आज मिरे अज़्म पे हैराँ यूँ वक़्त मुझे बार-ए-दिगर काट रहा है