कब से बंजर थी नज़र ख़्वाब तो आया By Ghazal << फ़क़त जज़्बात को हलचल न द... हदों से बढ़ के मुकम्मल हु... >> कब से बंजर थी नज़र ख़्वाब तो आया शुक्र है दश्त में सैलाब तो आया रौशनी ले के अक़ीदों के खंडर में मक्र ओढ़े सही महताब तो आया कश्ती-ए-जाँ को ये तस्कीन बहुत है ख़ैरियत पूछने गिर्दाब तो आया दौलत इश्क़ गँवा कर सही 'अमजद' फ़हम में नुक्ता-ए-आदाब तो आया Share on: