कब से मौहूम उमीदों का सिला रक्खा है तेरी यादों का बहुत ऊँचा दिया रक्खा है सुन के मजबूर-ए-तमन्ना की सिसकती आहें लोरियाँ दे के उसे दिल ने सुला रक्खा है उम्र गुज़री है मगर ख़ुद से जुदा कर न सके भूलने वाले तिरी याद में क्या रक्खा है साक़िया मेहर-ब-लब कर के सिला क्या पाया हश्र कुछ और ख़मोशी ने बपा रक्खा है याद भी कर न सके भूल भी पाए न जिसे इक वही अहद वो पैमान-ए-वफ़ा रक्खा है उस की ता'बीर भला कौन करेगा 'सादिक़' जागती आँखों ने जो ख़्वाब सजा रक्खा है