कभी दिल याद करता है कभी मुझ से झगड़ता है जो बाहर दस्तरस से हों उन्ही बातों पे अड़ता है किसी खंडर पुराने में बदलता जा रहा हूँ मैं कि रोज़ाना ही अंदर से मिरा ये जिस्म झड़ता है किसी भी ओर से आओ मिरे ही पास आओगे निशाँ तेरे भी रस्ते का मिरे रस्ते में पड़ता है इसे वहशत से जाने क्यों मोहब्बत हो रही है अब किसी ज़ंजीर को ख़ुद ही मिरा पाँव पकड़ता है मुझे ही मार डालेंगे जो मेरे यार बनते हैं समुंदर रास्ते में है क़दम आगे को बढ़ता है ये हसरत दीद-ए-सहरा की करे मजबूर हिजरत पर भला कब इतनी आसानी से रंग-ए-इश्क़ चढ़ता है चलो अपनी अनाओं को करें सज्दा ख़ुशी से हम मगर ख़्वाबों का 'नासिर' जी नगर सारा उजड़ता है