लहू से तर जो ख़ंजर हैं ये नफ़रत की तमाज़त है कि अब जंगल से भी बद-तर मिरे शहरों की हालत है किसी दिन तोड़ने वालों को ये एहसास हो ऐ काश महकता फूल टहनी पर मोहब्बत की अलामत है बड़ाई है मियाँ सारी की सारी अक़्ल-ओ-दानिश से वगर्ना आदमी में कब पहाड़ों जैसी ताक़त है सख़ी कुछ तो अता हो जाए अब तेरे ख़ज़ाने से मिरे दस्त-ए-दुआ' में देख मेरे दिल की हाजत है जो अपनी ज़ात में गुम हैं भला उन को ख़बर क्या हो बिछड़ कर ख़ुद से जीने में अज़िय्यत ही अज़िय्यत है निकल कर बाग़-ए-जन्नत से ये किस दुनिया में आया हूँ जहाँ जीना अज़िय्यत है जहाँ मरना मुसीबत है बस इक टूटा हुआ दिल है वजूद-ए-ख़ाक में 'नासिर' बता इस आइने की अब कोई जुड़ने की सूरत है