कभी गुमान से बाहर कभी गुमान में है वो बे-निशान जो मौजूद हर निशान में है मैं बे-ज़बान नहीं हूँ ब-पास-ए-हुरमत-ए-हर्फ़ गड़ा हुआ कोई ख़ंजर मिरी ज़बान में है सभी ज़मीन के रिश्तों से कट रहे हैं हम क़दम ज़मीं प दिमाग़ अपना आसमान में है मैं अपनी ज़ात की पाताल तक को छू आई जो डूबने में नशा है कहाँ उड़ान में है पहुँच से अपनी बहुत दूर जा चुकी हूँ तो फिर कोई तो आलम-ए-नायाफ़्त मेरे ध्यान में है कोई तो होगी बहर-हाल मस्लहत तेरी वगर्ना तीर तो अब तक तिरी कमान में है अब अपनी ज़ात का इदराक हो चला है 'शबीन' कि मेरी जान में है जो भरे जहान में है