ज़िंदगी अब तेरी बे-मसरफ़ है घर को छोड़ दे

ज़िंदगी अब तेरी बे-मसरफ़ है घर को छोड़ दे
ख़ुश्क पत्ता जिस तरह अपने शजर को छोड़ दे

ख़्वाहिशों के पुर-ख़तर जंगल में आवारा न घूम
दूर मंज़िल से जो कर दे उस डगर को छोड़ दे

दाएरों के इस सफ़र की इंतिहा कोई नहीं
लौट महवर की तरफ़ ऐसे सफ़र को छोड़ दे

क्यों न सय्यारे भी उल्टी चाल ही चलने लगें
आदमी जब आदमिय्यत की डगर को छोड़ दे

है फ़क़ीह-ए-शहर की ख़ुद क़ातिलों से साज़-बाज़
ढूँड मत इंसाफ़ उस से उस के दर को छोड़ दे

बन गए हैं पाँव की ज़ंजीर तेरे बाम-ओ-दर
ज़ौक़-ए-मंज़िल है तो अपने बाम-ओ-दर को छोड़ दे

टूटता है जब कोई रिश्ता तो भर आता है दिल
फिर भी आँसू पोंछ नख़्ल-ए-बे-समर को छोड़ दे

तेरे आँचल की हवा उस के मुक़द्दर में कहाँ
ग़म से घबरा कर जो तेरी रहगुज़र को छोड़ दे

उस ने सीखा भी तो क्या सीखा ज़माने से 'शबाब'
दूसरे के ऐब जो ले ले हुनर को छोड़ दे


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