कभी हमारे लिए तेग़-ए-बे-नियाम करो जो दास्ताँ है तुम्हारी उसे तमाम करो ख़ुलूस और मोहब्बत से नेक काम करो ये मय-कदे है सभी को शरीक-ए-जाम करो जो मय-कदे से निकाले गए तो क्या होगा मैं मोहतसिब हूँ यहाँ मेरा एहतिराम करो तुम्हारे क़ुर्ब से दिल को सुकून मिलता है मिरे क़रीब ही बैठो न कुछ कलाम करो वो एक शाम कि जिस पर निसार सुब्ह-ए-अज़ल वो एक शाम कभी तुम हमारे नाम करो कहाँ नजात की सूरत है क़ैद-ए-हस्ती से किसी तरह इसी ज़िंदाँ में सुब्ह-ओ-शाम करो 'हबाब' हस्ती-ए-मौहूम का भरोसा क्या मुसाफ़िरों की तरह बस यहाँ क़याम करो