कभी हम पर भी वो बुत मेहरबाँ हो जाए ना-मुम्किन मोहब्बत भी जहाँ में कामराँ हो जाए ना-मुम्किन कुछ इस ढब से निज़ाम-ए-गुलसिताँ हो जाए ना-मुम्किन बहार आए कभी दौर-ए-ख़िज़ाँ हो जाए ना-मुम्किन मज़ा जब है कि हम को क़ाबिल-ए-मश्क़-ए-सितम समझे मगर इतना भी वो बुत मेहरबाँ हो जाए ना-मुम्किन समझ कर दोस्त दुश्मन को लगा लेते हैं सीने से हमें अपनों पे ग़ैरों का गुमाँ हो जाए ना-मुम्किन मिरी हर इल्तिजा पर वो नहीं कह देते हैं फ़ौरन कभी इक बार भूले से भी हाँ हो जाए ना-मुम्किन मोहब्बत के असर का किस तरह मुझ को यक़ीं आए यहाँ जो दिल की हालत है वहाँ हो जाए ना-मुम्किन कुछ इस हद तक हर इक बंदे को दा'वा है ख़ुदाई का कि अब बंदे पे बंदे का गुमाँ हो जाए ना-मुम्किन तुझे ऐ नाख़ुदा हरगिज़ ख़ुदा हम कह नहीं सकते कभी क़तरा भी बहर-ए-बेकराँ हो जाए ना-मुम्किन मिरी मंज़िल वो मंज़िल है कभी जो मिल नहीं सकती सराब-ए-दश्त भी आब-ए-रवाँ हो जाए ना-मुम्किन मज़ा जब है क़फ़स भी आशियाँ के साथ जल उट्ठे कभी यूँ मेहरबाँ बर्क़-ए-तपाँ हो जाए ना-मुम्किन ख़मोशी ही बयाँ कर दे तो कर दे ऐन मुमकिन है ज़बाँ से हाल-ए-दिल अपना बयाँ हो जाए ना-मुम्किन कभी भी दिल जले को कौन रोके आह-ओ-नाला से अलग ऐ 'सेहर' आतिश से धुआँ हो जाए ना-मुम्किन