याद उन की दुश्मन-ए-आराम हो कर रह गई बे-क़रारी इश्क़ का इनआ'म हो कर रह गई ज़ीस्त अपनी कुश्ता-ए-आलाम हो कर रह गई हाँ रहीन-ए-गर्दिश-ए-अय्याम हो कर रह गई हर क़दम पर हम नई उलझन में फँस कर रह गए ज़िंदगानी इक मुसलसल दाम हो कर रह गई ज़िंदगी में हो सका न हम को एहसास-ए-ख़ुशी ज़िंदगी अपनी शिकस्ता जाम हो कर रह गई तल्ख़ियाँ माज़ी की कुछ यूँ ज़ेहन पर छाई रहीं इशरत-ए-नौ इक ख़याल-ए-ख़ाम हो कर रह गई हर नया दिन साथ लाया कुछ नई मायूसियाँ हर सहर अपने लिए तो शाम हो कर रह गई हो गया दिल पर तसल्लुत इस तरह आलाम का हर ख़ुशी आख़िर बराए-नाम हो कर रह गई दर्द-ओ-रंज-ओ-ग़म शरीक-ए-ज़िंदगी थे हर तरह मौत आख़िर मुफ़्त में बदनाम हो कर रह गई दिल-लगी आग़ाज़-ए-उल्फ़त है ये माना हम-नशीं और अगर दिल की लगी अंजाम हो कर रह गई इश्क़ का ए'ज़ाज़ पहले था किसी को ही नसीब अब ये तोहमत हर किसी के नाम हो कर रह गई शैख़ साहब आप से कम-ज़र्फ़ लोगों के तुफ़ैल मय-परस्ती दहर में बदनाम हो कर रह गई ग़म ज़माने-भर के सब हिस्से में मेरे आ गए हर ख़ुशी दुनिया की उन के नाम हो कर रह गई मैं तो मर कर भी उन्हें ऐ 'सेहर' कर पाया न ख़ुश कोशिश-ए-आख़िर भी ये नाकाम हो कर रह गई