कभी लिखता हूँ मैं उन को अगर ख़त चला जाता है क़ासिद भूल कर ख़त नहीं आज़ाद कर सकते हमें वो लकीरें अपने माथे की हैं सर ख़त जो तुम बे-ए'तिनाई से न लिखते न देता हम को क़ासिद फेंक कर ख़त मिरी क़िस्मत से भूला नाम क़ासिद न लिखते तुम तो वर्ना उम्र भर ख़त ख़ुशी से उठ के 'अंजुम' पाँव चूमूँ कि लाया यार का है नामा-बर ख़त