कभी नफ़रत के लहजे से मोहब्बत काँप जाती है मुख़ालिफ़ कोई अपना हो तो हिम्मत काँप जाती है सुना है क़ातिलों के ख़ौफ़ से मुंसिफ़ लरज़ते हैं सज़ा उन को सुनाने को अदालत काँप जाती है बहादुर बाग़ियों के हौसलों से कुछ नहीं होता अगर सरदार बुज़दिल हो बग़ावत काँप जाती है हमारे हौसलों को तू नज़र-अंदाज़ मत करना ये वो बाज़ू है जिस से बादशाहत काँप जाती है हवस का ज़ोर होता है अमीरों के मकानों में ग़रीब-ए-वक़्त की हर इक ज़रूरत काँप जाती है 'नवाब'-ए-वक़्त हूँ लेकिन मिरी ख़स्ता हवेली है कभी दीवार हिलती है कभी छत काँप जाती है