कभी सनम तो कभी वो ख़ुदा था आँखों में खुली जो आँख तो मंज़र जुदा था आँखों में बिखर रहे थे ज़मान-ओ-मकाँ में सर कितने कि पिछली रात अजब रन पड़ा था आँखों में उसी से आई थी कौन-ओ-मकाँ की आवाज़ें वो एक दर जो सहर तक खुला था आँखों में गुज़र गया वो मिरे दिल से सर झुकाए हुए फिर उस के बा'द अंधेरा बड़ा था आँखों में अजीब रंग से उस ने दिखाया रंग-ए-बहार चमन चमन था मगर गुल खिला था आँखों में अभी किया था हिसार-ए-ख़याल के बाहर ज़रा सी देर में वो फिर खड़ा था आँखों में हुजूम-ए-साअ'त-ए-ख़ाली न आसमाँ न ज़मीं दरून-ए-ज़ात का वो सानेहा था आँखों में तिलिस्म-ए-सौत-ओ-सदा और निगार-ख़ाना-ए-रंग हर एक आन में मंज़र नया था आँखों में बस इस तरह से बदन का सफ़र तमाम हुआ नज़र थी जानिब-ए-साग़र ख़ुदा था आँखों में उसी ने मेरे तग़ज़्ज़ुल को पाश पाश किया वो आदमी जो बरहना खड़ा था आँखों में न मैं था और न तुम थे न तीसरा कोई बदन के पार बदन दूसरा था आँखों में वो जल्वा-रेज़ सुख़न-दर-सुख़न था मेरे लिए वो हुस्न-ए-ख़्वाब सदा-दर-सदा था आँखों में अब उस के क़ुर्ब का 'अजमल' हिसाब क्या रखता तमाम शब का अजब सिलसिला था आँखों में