कभी शीशा कभी आहन कभी पत्थर बनाता हूँ मैं शाइ'र हूँ तुझे क्या क्या दिल-ए-मुज़्तर बनाता हूँ तपा कर गर्मी-ए-एहसास में बे-जान लफ़्ज़ों को कहीं शो'ला बनाता हूँ कहीं अख़गर बनाता हूँ इसे रग़बत कहूँ तेरी कि अपने दिल की बेताबी तसव्वुर में कोई तस्वीर मैं अक्सर बनाता हूँ अमल दीवानगी का है तो क्यों दाना कहूँ ख़ुद को मैं काग़ज़ के सिपाही काट कर लश्कर बनाता हूँ तअ'स्सुब की गिरा करती हैं जिस जा बिजलियाँ अक्सर मुझे भी ज़िद है अक्सर मैं वहीं पे घर बनाता हूँ ख़ुदा शाहिद मुझे 'रिज़वाँ' यही दो काम आते हैं जहाँ मस्जिद बनाता हूँ वहीं मिम्बर बनाता हूँ