कभी सितम को सितम न समझे फ़िराक़ को भी अलम न समझे हुए जो बे-ख़ुद तो हम न समझे कि ज़ौक़-ए-हिज्र-ओ-विसाल क्या है वो इस तरह से है जल्वा-फ़रमा कि तालिब-ए-दीद है ज़माना जो हम से मद्द-ए-नज़र था छुपना ज़ुहूर का नाम क्यों किया है मैं अपनी हालत पे क्यों हूँ पुर-ग़म जहाँ में कोई नहीं है ख़ुर्रम जो दिल है ग़ुंचों का तंग हर दम गुलों का सीना फटा हुआ है ये कम-सिनी तेरी और ये मज़मूँ ये फ़िक्र-ए-सालिम ये तब्-ए-मौज़ूँ ज़रूर हासिद का दिल हो पुर-ख़ूँ कि तू ने 'मैकश' ग़ज़ब किया है