कभी सू-ए-दश्त निकल पड़े कभी सू-ए-दार चले गए तिरी चाह में न कहाँ कहाँ तिरे बे-क़रार चले गए जो किताब-ए-दिल में थी पंखुड़ी किसी सर-कशीदा गुलाब की वो दबी रही तो वरक़ वरक़ हुए लाला-ज़ार चले गए उन्हें काम था तिरे काम से तिरे ज़िक्र से तिरे नाम से वो जो आबला-पा बरहना-पा सर-ए-दश्त-ए-ख़ार चले गए न वो धड़कनें न वो उलझनें न वो वसवसे न वो क़हक़हे तिरे अह्द में दिल-ए-ज़ार के सभी इख़्तियार चले गए मिरे पैरहन की गवाहियाँ न सुनी गईं न लिखी गईं कि ज़नान-ए-मिस्र की बात पर ही अज़ीज़दार चले गए न वो रस्म-ए-जामा-दरी रही न मिज़ाज-ए-बख़िया-गरी रहा वो जुनूँ-शिआ'र कहाँ रहे वो करम-निसार चले गए जो न दैर में न हरम में थे जो असीर हल्का-ए-ग़म में थे वो नवा-ए-दर्द पे नग़्मा-ख़्वाँ तिरे शब-गुज़ार चले गए मैं सुकूत-ए-दामन-ए-दश्त से जहाँ गुफ़्तुगू में मगन रहा वहाँ झील थक के रुकी रही मगर आबशार चले गए तिरा दर्द 'बज़्मी'-ए-ना-तवाँ न इधर सुना न उधर सुना कि दयार-ए-निकहत-ओ-नूर से तिरे ग़म-गुसार चले गए