कभी सुकूँ तो कभी इज़्तिराब भी झेला खुली जो आँख तो अंजाम-ए-ख़्वाब भी झेला क़दम क़दम पे पुराने सबक़ भी याद आए क़दम क़दम पे बदलता निसाब भी झेला बयाज़-ए-दिल के सुनहरे हुरूफ़ भी चूमे किताब-ए-जाँ पे लिखा इंतिसाब भी झेला हमारा हक़ भी मुसल्लम था क़तरे क़तरे पर हमीं ने तिश्ना-लबी का अज़ाब भी झेला कभी जो आईना-ख़ाने की सैर को निकले तो एक मंज़र-ए-ख़ुद एहतिसाब भी झेला चले तो सारे ज़माने को साथ ले के चले रुके तो आलम-ए-ख़ुद-इज्तिनाब भी झेला न जाने किस की रही जुस्तुजू 'ज़िया' हम को कि हम ने इक दिल-ए-ख़ाना-ख़राब भी झेला