मैं जब भी तिरे शहर-ए-ख़ुश-ए-आसार से निकला इक क़ब्र का टुकड़ा भी फ़लक-ज़ार से निकला हर वार में मुज़्मर तिरी हिकमत है सिपाही हर जीत का मुज़्दा तिरी तलवार से निकला फिर अपनी ही हैबत में गिरफ़्तार हुआ मैं फिर कोई दरिन्दा मिरे पिंदार से निकला ये किस ने सफ़ीने को निकाला है भँवर से ये कौन शनावर है जो मंजधार से निकला कुछ भी न मिला मेरे ख़रीदार को मुझ में इस का भी पता चश्म-ए-ख़रीदार से निकला ये कौन है जो बन के किरन नाच रहा है ये कौन है जो रौज़न-ए-दीवार से निकला उस सम्त नज़र आए ग़ज़ालान-ए-क़बा-पोश इस सम्त 'ज़िया' अक़्ल के आज़ार से निकला