कभी था ‘नक़वी’-ए-बेकस भी इक गुलिस्ताँ सा मगर जो देखिए अब तो हुआ बयाबाँ सा जुनून-ए-इश्क़ है परियाँ उड़ाए फिरती हैं दयार-ए-शौक़ में आशिक़ भी है सुलैमाँ सा तुम्हारी तेज़ नज़र से खिले दिलों के चमन तमाम आलम-ए-इम्काँ हुआ नमक-दाँ सा क़फ़स का दर जो खुला बाज़ुओं में ज़ोर नहीं क़फ़स-नसीबों पे छाया है अब भी ज़िंदाँ सा बहार वो है कली दिल की जिस से हो ख़ंदाँ हुआ करे जो ये आलम है इक बहाराँ सा तुम्हें ख़बर है कि दिल पर किसी के क्या गुज़री ब-रंग-ए-आइना साकित है और हैराँ सा जो देखे दाग़ मिरे दिल के रह गए शश्दर समझ रहे थे कि बस होगा इक चराग़ाँ सा ख़बर उड़ी कि वो गुज़रेंगे मेरे कूचे से तमाम राह का आलम था नर्गिसिस्ताँ सा