कभी तो इस आब-ओ-हवा को बदल कर मुझे देख ख़ुद से तू बाहर निकल कर तमाशा नहीं है फ़क़त तेरी दुनिया खुला भेद मुझ पर ये घर से निकल कर ये कम तो नहीं है कि शहर-ए-सुख़न तक मैं ख़ुद अपने पैरों पे आया हूँ चल कर कहाँ देखता है इधर को उधर को ये उलझन है तेरी इसे ख़ुद ही हल कर ज़मीं निकली जाती है पैरों से मेरे बहुत चल रहा हूँ अगरचे सँभल कर बदल जाए शायद मिज़ाज उस का 'ख़ावर' चलो देखते हैं ये मौसम बदल कर