कभी तो नज़र-ए-करम मुझ पे ख़ूब-रू करते तमाम उम्र कटी उन की आरज़ू करते ख़ुदी को ठेस न लगती लबों की जुम्बिश से निगाह-ए-नाज़ से वो मुझ से गुफ़्तुगू करते चमन से गुज़रा बहारों का क़ाफ़िला लेकिन हम अपने चाक-गरेबाँ कहाँ रफ़ू करते हमारे घर जो कभी जान-ए-माह-रू आता तो उस के क़दमों पे क़ुर्बान आरज़ू करते निगाहें उन से मिलीं तब ये जा के हम समझे शबाब यूँ ही गँवाया है जुस्तुजू करते यहाँ तो सोज़-ए-तमन्ना में आँख सूख चली रही तमन्ना कि अश्कों से हम वुज़ू करते ज़फ़र बना लो किसी को भी राज़-दाँ अपना तमाम उम्र कटी दिल से गुफ़्तुगू करते