कभी तो रंग-ए-हुस्न-ए-यार देखूँ कहाँ तक दीदा-ए-ख़ूँ-बार देखूँ वही देखूँ जिसे देखा न जाए ये मंज़र और कितनी बार देखूँ पलक झपकूँ तो फिर इन पत्थरों में कहाँ ऐसे मोहब्बत-ज़ार देखूँ किसी का ज़ख़्म-ए-दिल देखा न जाए जिगर हो तो कोई शहकार देखूँ कमानें टूटती देखी हैं मैं ने गिनूँ बाहें कि लिपटे हार देखूँ किसी को इस तरह देखूँ तो रोऊँ मैं कैसे अपना हाल-ए-ज़ार देखूँ दिलों के सब घड़े कच्चे हैं 'कौसर' मैं किस की राह दरिया पार देखूँ