कभी ज़मीं पे कभी नीले आसमान में हूँ हवा की तरह मैं हर पल नए मकान में हूँ तिरा वक़ार तो मेरे ही दम से क़ाएम है मैं मिस्ल-ए-आब-ए-गुहर तेरी आन-बान में हूँ लबों से उस के निकल कर हुआ हूँ आवारा मैं एक लफ़्ज़ हूँ हर-दम नई उड़ान में हूँ मुझे तो गहरे समुंदर से जा के मिलना है अभी मैं रुक नहीं सकता अभी ढलान में हूँ समझ तू मुझ को ज़रा मेरी क़द्र कर नादाँ मैं आसमानी सहीफ़ा तिरी ज़बान में हूँ मिरे हिसार में थी सारी काएनात कभी सितम है क़ैद मैं ख़ुद अपने ही मकान में हूँ अगर है शौक़ तो मुझ को ख़रीद ले आकर कि मैं तो शहर-ए-हवस की हर इक दुकान में हूँ