ख़याल-ओ-ख़्वाब के पैकर बदलते रहते हैं हम अपनी आग में हर-दम पिघलते रहते हैं हमें है नाज़ कि हम हैं पहाड़ की मानिंद हमारी आँखों से चश्मे उबलते रहते हैं तुम्हारे वास्ते ये चीज़ है नई वर्ना यहाँ पे साँप तो अक्सर निकलते रहते हैं बुलंदियों में जो उड़ते हैं उन को क्या मालूम घने बनों की हैं हम आग जलते रहते हैं तुम अपने जिस्म के मल्बूस को बचाए रखो ग़लीज़ पानी हैं हम तो उछलते रहते हैं हमारे साथ कहाँ तक चलोगे ज़िद न करो कि रास्तों की तरह हम तो चलते रहते हैं बदलती रुत की तरह उन के प्यार में हम भी ख़ुद अपनी शक्ल को हर-दम बदलते रहते हैं