क़दम-क़दम पे ठहरते थे डर ही ऐसा था न तय हुआ कभी हम से सफ़र ही ऐसा था मुहीब साए से आते रहे नज़र हर-सू ये ज़िक्र-ए-दश्त नहीं अपना घर ही ऐसा था न रास आए हैं ऐश-ओ-निशात के लम्हे निज़ाम-ए-दहर का हम पर असर ही ऐसा था कोई भी ऐब फटकने न पाया पास अपने हमारे पास तिलिस्म-ए-हुनर ही ऐसा था हमें ये शौक़ कि तूफ़ाँ की मौज से खेलें मगर किनारे पे लाया भँवर ही ऐसा था यहीं से आती थीं हर शब अजीब आवाज़ें शहर से दूर पुराना खंडर ही ऐसा था अँधेरी वादियाँ भी हम को जगमगाती लगीं हमारे पास चराग़-ए-नज़र ही ऐसा था हर एक शख़्स यहाँ था मुखौटा पहने हुए तमाम नगरों में अपना नगर ही ऐसा था बहार और ख़िज़ाँ एक से हैं उस के लिए हमारे बाग़ का तन्हा शजर ही ऐसा था न ख़म हुआ किसी जाबिर के रू-ब-रू 'गौहर' सदा बुलंद रहा अपना सर ही ऐसा था